Wednesday, September 15, 2010

साँचा

कोई दिल बदलते तो कोई दल बदलते हैं ।
व्यर्थ ही दिल-दल के दलदल में उलझते हैं ।
बदलते-बदलते बदलने वाले बदल जाते हैं,
पर जो बदलने चाहिए, बिनबदले रह जाते हैं ।
अरे बदलने वालो! वह साँचा तो बनाओ, जिसमें-
बदलाव भी बदलता, बदलने वाले भी बदलते हैं ।
                                                 - धीरेन्द्र

Monday, September 13, 2010

किसे जगाया जाए?

किसे जगाया जाए?
होश हो और जोश हो, तो नसीब बनाया जाए ।
रूठने वाला खुदा हो तो उसे मनाया जाए ।
पर आँख हो-न देखता हो, सुनते हुए न सुनता हो,
जागते हुए भी सोता हो, तो किसे जगाया जाए?
                                                 - धीरेन्द्र

Thursday, September 9, 2010

शरमाता क्यों है?

बुरी नजर वाले! जब मुँह होता काला, तो करनी का ही फल है ये, शरमाता क्यों है?

पहन तो लेता मजे से रंगबिरंगी चश्मा तू, रंगों का अब भ्रम होता तो चकराता क्यों है?

पहले तो सोचता नहीं करने की बात क्या? आँख मुँद के चलता है दिन क्या औ रात क्या?

ठोकर खाते घायल होते कदमों पर ध्यान नहीं । मरहम लगाए क्या जब दर्दों का ही भान नहीं ।

जान-बूझ के चुपके चुपके गलती करता रहता है, तो फल भी भोग ले चुपचाप भैया, चिल्लाता क्यों है?

जिन्द मिली जन्नत की मोल तूने किया क्या? लेने-देने का है जहाँ तूने लिया-दिया क्या?

बस बटोरा कंकर तो भी तोड़-फोड़ के काम किये । बूँदभर पानी पिलाता क्या, उलटा प्यासे प्राण लिये ।

इनसान होकर भूत-पलीत सी हरकत करता रहता है, तो सच का पिशाच भी गले लगा ले, घबराता क्यों है?

मत रह इस भ्रम में कि तू ही सिर्फ चालाक् है । दुनिया ऐसी है कि यहाँ तेरे भी सौ बाप हैं ।

चूना लगाने वालों को चूना लगाया जाता है । मिठाई खिलाने वालों का मुँह मीठा किया जाता है ।

चूना लगाके मुँह मीठे का सपना देखना चाहता है, तो देख ले भैया जलता मुँह, कुलबुलाता क्यों है?

नींद छोड़ के बावरा तू आँख खोल के देख जरा । नया सूरज नयी रोशनी नया सुबह देख जरा ।

छोड़ आलस्य दम्भाभिमान सच्चाई की सोच जरा । बुरा किया बार बार अब अच्छा करके देख जरा ।

नीम करेला खाया खूब अब शहद का भी स्वाद ले, मीठा न लगे तो कहना सलाह देता क्यों है?

भटकने को मरूथल है, भटक भी लिया है खूब । पीना था तो अमृत मगर जहर पी लिया है खूब ।

लेना देना करना था जो वह सब कुछ किया नहीं । जैसे जीना चाहिए था जिन्द वैसे कभी जीया नहीं ।

मस्ती में हस्ती मिटा दी, उजड़ रही बस्ती देख! जिन्दगी जीने के नाम पर यूँ मरता क्यों है?

*** धीरेन्द्र

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