चाहे कोई भी बात क्यों न हो, उसे सुनकर एकाएक प्रभावित, आसक्त, सम्मोहित या क्रोधित-उत्तेजित नहीं हो जाना चाहिए, उसके चलते अपने मन में घृणा, तिरस्कार के भाव नहीं भर लेने चाहिए, बल्कि उसे ठीक से समझने की कोशिश करनी चाहिए। कभी-कभी ऐसा होता है कि सुनी हुई बात यथार्थ में वैसी नहीं होती। ऐसी हालत में बाद में पछताना पड़ता है जिसका कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि जो प्रतिक्रिया एक बार अपने अन्दर कर ली गई, उसे दोबारा तो नहीं बदली जा सकती। उसमें जो ऊर्जा खर्च हुई, उसे दोबारा लौटायी तो नहीं जा सकती। इसलिए किसी भी बात पर पहले गम्भीरता से विचार कर लेना चाहिए, इसके बाद ही उसके बारे में कोई निर्णय लेना चाहिए। सूझबूझ या समझदारी इसी का नाम है।
- धीरेन्द्र
- धीरेन्द्र