Saturday, December 18, 2010

समझदारी

       चाहे कोई भी बात क्यों न हो, उसे सुनकर एकाएक प्रभावित, आसक्त, सम्मोहित या क्रोधित-उत्तेजित नहीं हो जाना चाहिए, उसके चलते अपने मन में घृणा, तिरस्कार के भाव नहीं भर लेने चाहिए, बल्कि उसे ठीक से समझने की कोशिश करनी चाहिए। कभी-कभी ऐसा होता है कि सुनी हुई बात यथार्थ में वैसी नहीं होती। ऐसी हालत में बाद में पछताना पड़ता है जिसका कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि जो प्रतिक्रिया एक बार अपने अन्दर कर ली गई, उसे दोबारा तो नहीं बदली जा सकती। उसमें जो ऊर्जा खर्च हुई, उसे दोबारा लौटायी तो नहीं जा सकती। इसलिए किसी भी बात पर पहले गम्भीरता से विचार कर लेना चाहिए, इसके बाद ही उसके बारे में कोई निर्णय लेना चाहिए। सूझबूझ या समझदारी इसी का नाम है।
- धीरेन्द्र

Friday, December 10, 2010

व्यक्तित्व


व्यक्तित्व
अगर आप अपने व्यक्तित्व को कायम रखना चाहते हों, अगर आप चाहते हों कि आपकी गरिमा गिरे नहीं, आप जहाँ हैं, वह स्थिति सदा बनी रहे, बल्कि उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे, प्रगति और उन्नति होती रहे, तो आप ऐसा काम कदापि न करें जिससे आपके आत्मसम्मान को हानि पहुँचती हो, बाद में क्षतिपूर्ति नामुमकिन हो, आत्मग्लानि का शिकार होना पड़े, करते वक्त आपकी आत्मा नकारती हो ।
कुछ काम ऐसे होते हैं जिनकी पश्चात्पूर्ति असम्भव होती है । ऐसे हानिकारक दुरूह दुष्कर्मों या दुर्विचारों को अपनी पैनी दृष्टि, सूझबूझ, सद्विवेक व निष्पक्ष समीक्षा द्वारा पहचानें और उनसे सदा सावधान रहें । ध्यान रहे, विचार आगे चलकर क्रिया रूप में परिणत होते हैं और उसी से आपका व्यक्तित्व निर्धारित होता है । अतः परिमार्जन-परिष्करण का शुभारम्भ विचारों के धरातल से ही करें । लक्ष्य निश्चित रहे, प्रयास में आलस्य का घुसपैठ न हो पाए, दिमाग में खोजी प्रवृत्ति सदा सक्रिय रहे, तो मंजिल की ओर कदम निश्चय ही बढ़ते चले जायेंगे । आश्शा और पुरुषार्थ का पौध सूखने न पाए, इसका ख्याल रहे । बाधाओं से पैर लड़खड़ा न जाएँ, ऐसी हिम्मत और दृढ़ता बनी रहे । सफलता की अपेक्षा ध्यान लक्ष्य की ओर रहे । अगर ऐसा हो पाए तो आपकी गरिमा सदा कायम रहेगी । ईश्वर करे, आपका कदम मंजिल की ओर बढ़ते चले जाएँ । आपका, सबका सब भाँति हित हो । सब सुखी रहें, सबको उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति हो, सब लोग अच्छे कर्मों में प्रवृत्त रहें, ऐसी ईश्वर से प्रार्थना और हमारी ओर से शुभकामना ।
                                                             -धीरेन्द्र

Saturday, December 4, 2010

आजादी


आजादी हमें दी किसने? कौन सी वो सानी थी ?
क्या वे गाँधी-पटेल थे या झाँसी वाली रानी थी ?
वे तो सिर्फ माध्यम थे और सारी बात जुबानी थी ।
आजादी दिलाने वाली तो, भारत की जवानी थी ।
                                                      धीरेन्द्र

Wednesday, September 15, 2010

साँचा

कोई दिल बदलते तो कोई दल बदलते हैं ।
व्यर्थ ही दिल-दल के दलदल में उलझते हैं ।
बदलते-बदलते बदलने वाले बदल जाते हैं,
पर जो बदलने चाहिए, बिनबदले रह जाते हैं ।
अरे बदलने वालो! वह साँचा तो बनाओ, जिसमें-
बदलाव भी बदलता, बदलने वाले भी बदलते हैं ।
                                                 - धीरेन्द्र

Monday, September 13, 2010

किसे जगाया जाए?

किसे जगाया जाए?
होश हो और जोश हो, तो नसीब बनाया जाए ।
रूठने वाला खुदा हो तो उसे मनाया जाए ।
पर आँख हो-न देखता हो, सुनते हुए न सुनता हो,
जागते हुए भी सोता हो, तो किसे जगाया जाए?
                                                 - धीरेन्द्र

Thursday, September 9, 2010

शरमाता क्यों है?

बुरी नजर वाले! जब मुँह होता काला, तो करनी का ही फल है ये, शरमाता क्यों है?

पहन तो लेता मजे से रंगबिरंगी चश्मा तू, रंगों का अब भ्रम होता तो चकराता क्यों है?

पहले तो सोचता नहीं करने की बात क्या? आँख मुँद के चलता है दिन क्या औ रात क्या?

ठोकर खाते घायल होते कदमों पर ध्यान नहीं । मरहम लगाए क्या जब दर्दों का ही भान नहीं ।

जान-बूझ के चुपके चुपके गलती करता रहता है, तो फल भी भोग ले चुपचाप भैया, चिल्लाता क्यों है?

जिन्द मिली जन्नत की मोल तूने किया क्या? लेने-देने का है जहाँ तूने लिया-दिया क्या?

बस बटोरा कंकर तो भी तोड़-फोड़ के काम किये । बूँदभर पानी पिलाता क्या, उलटा प्यासे प्राण लिये ।

इनसान होकर भूत-पलीत सी हरकत करता रहता है, तो सच का पिशाच भी गले लगा ले, घबराता क्यों है?

मत रह इस भ्रम में कि तू ही सिर्फ चालाक् है । दुनिया ऐसी है कि यहाँ तेरे भी सौ बाप हैं ।

चूना लगाने वालों को चूना लगाया जाता है । मिठाई खिलाने वालों का मुँह मीठा किया जाता है ।

चूना लगाके मुँह मीठे का सपना देखना चाहता है, तो देख ले भैया जलता मुँह, कुलबुलाता क्यों है?

नींद छोड़ के बावरा तू आँख खोल के देख जरा । नया सूरज नयी रोशनी नया सुबह देख जरा ।

छोड़ आलस्य दम्भाभिमान सच्चाई की सोच जरा । बुरा किया बार बार अब अच्छा करके देख जरा ।

नीम करेला खाया खूब अब शहद का भी स्वाद ले, मीठा न लगे तो कहना सलाह देता क्यों है?

भटकने को मरूथल है, भटक भी लिया है खूब । पीना था तो अमृत मगर जहर पी लिया है खूब ।

लेना देना करना था जो वह सब कुछ किया नहीं । जैसे जीना चाहिए था जिन्द वैसे कभी जीया नहीं ।

मस्ती में हस्ती मिटा दी, उजड़ रही बस्ती देख! जिन्दगी जीने के नाम पर यूँ मरता क्यों है?

*** धीरेन्द्र

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