Friday, October 23, 2015

सबसे ज्यादा जानने योग्य वस्तु

         क्या आप जानते हैं कि जीवन में सबसे ज्यादा जानने योग्य वस्तु क्या है? अगर नहीं, तो आइए,चलते हैं पूजनीय ऋषियों के विचारों की ओर और देखते हैं कि वे इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और ज्ञातव्य वस्तु के बारे में क्या कहते हैं। अगर आप भी विचार करेंगे तो मालूम हो जाएगा संसार में सबसे ज्यादा जरूरी और महत्त्वपूर्ण  क्या है? फिर आपको भी लगेगा कि उसे जानने का प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञानार्जन की अगणित धाराएँ हैं। उन सबको जानना दुष्कर ही नहीं, नामुमकिन है। अगणित विषय हैं जिनकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया है। अनगिनत वस्तु हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते हैं। जो दिखाई देते हैं, उनमें से अगणित चीजें हैं, जिनके बारे में हमें राई रत्ती भर ज्ञान नहीं है। जो दिखाई नहीं देते, उनमें से पता नहीं कितनी ऐसी चीजें होंगी, जिनके विषय में शायद कल्पना भी न हुई हो। एक-एक ज्ञान सागर की अनगिनत सोताएँ होंगी, जिनके स्थूल रूपों की कल्पना भी अभी तक हमारे मस्तिष्क में नहीं उपजी है। वैसे अभी तक जो जान लिया गया है, वह भी कम नहीं है। अब तक के अनुभवों को कम नहीं आँके जा सकते। ज्ञान-विज्ञान की दिशाओं में अब तक बहुत ही अभिनन्दनीय प्रयास हुए हैं। विज्ञान के आविष्कारों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि यह सब मनुष्य कर्त्तृक है। मालूम होता है जैसे सब कुछ देवताओं द्वारा सम्भव हुआ है। कलाओं के क्षेत्र में कुशलताओं को देखकर प्रतीत होता है जैसे किसी दिव्य लोक के देदीप्यमान व्यक्तित्व ही धरती पर उतरकर ऐसी चमत्कारिक कृतियाँ प्रस्तुत की हों। संगीत, चित्रकारिता, मूर्तिकला आदि को निहारें तो लगता है जैसे यह सब इन्सानी खयालातों से परे दिव्य संकल्पनाओं के साकार रूप हैं। चिकित्सा क्षेत्र की प्रगति को देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। हृदय, मस्तिष्क आदि की शल्य क्रिया जैसी कठिनतम प्रक्रियाओं के माध्यम से मृतक जैसी स्थिति में पहुँचे प्राणी को भी नवजीवन देना सम्भव हो गया है। टेलीफोन, रेडियो-टी.वी जैसी संचार प्रणालियों पर दृष्टि डालें तो लगता है पुरातन काल की दूर श्रवण, दूर दर्शन जैसी ऋद्धि-सिद्धियों को भी पीछे छोड़ दिया गया हो। मतलब अब तक की उपलब्धियाँ बहुत ही अभिनन्दनीय हैं और निश्चय ही यह सब प्रखर मनीषा के नैष्ठिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप हस्तगत हुई हैं। किन्तु इतना सब कुछ होने के बावजूद भी क्या मनुष्य को वास्तविक सन्तुष्टि हुई है? क्या उसने वह कुछ हॉसिल कर पाया है जिससे वह अपने आपको कृतार्थ समझ सके? क्या इन उपलब्धियों से प्यास पूर्ण रूप से शान्त हुई है? क्या आपको लगता है कि अब तक के आविष्कारों-उद्भावनों से आप पूर्ण सन्तुष्ट हैं? अगर इमानदारी से उत्तर देने जायेंगे तो सम्भवतः आप ‘हाँ’ नहीं कह पायेंगे। आप नहीं कह पायेंगे कि हम अब तक की जानकारियों और उपलब्धियों से पूर्ण सन्तुष्ट या तृप्त हैं। क्योंकि पूर्ण सन्तुष्टि या पूर्ण तृप्ति नश्वर वस्तुओं की जानकारियों और उपभोगों से नहीं, शाश्वत के ज्ञान से ही सम्भव है। इसलिए तमाम जानकारियों के बावजूद भी अन्तःकरण की गहराई में एक गहन प्यास, एक व्याकुल जिज्ञासा बराबर बनी रहती है और तमाम सुख-सुविधाओं के संसाधान सुलभ होते हुए भी एक कमी-सी, अतृप्ति-सी, अशान्ति-सी महसूस होती रहती है। कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि मैं पूर्ण तृप्त हूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। क्यों? क्योंकि ये उपलब्धियाँ, स्थूल जानकारियाँ और नश्वर सामग्रियाँ हैं, जो पूर्ण सन्तुष्टिदायक हो ही नहीं सकतीं। जो स्वयं टिकने वाले  नहीं, वे औरों को टिकाऊ सुख कैसे दे सकते हैं ? नश्वर वस्तुओं से भला अविनश्वर का आनन्द कैसे सम्भव है ? यह तो ऐसा हुआ कि अन्धकार से प्रकाश का जन्म हुआ, जो कि एक हास्यास्पद है। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है- ‘अस्थिर के पीछे मत भागो। स्थिर की ओर देखो, उसी को पाने का प्रयत्न करो।’
            अब आपको उत्सुकता हो रही होगी कि वह स्थिर वस्तु क्या है, जो कभी हिलता-डुलता या बदलता नहीं? सदा अचल, अपरिवर्तित और विकारों से अछूता रहती है। ज्ञानियों ने कहा है-वह शाश्वर, अविनश्वर, अजर अमर वस्तु केवल ‘आत्मा’ है। सम्पूर्ण जिज्ञासाओं और शंकाओं का समाधान सिर्फ इसी को जानने में है। स्थिर शान्ति और चिर सुख जैसी स्थायी अनुभूतियों का स्रोत सनातन आत्मज्ञान ही है, इसी को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
         उन्होंने निर्देश दिया है- ‘आत्मा वा अरे ज्ञातव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः ध्यातव्यः निदिध्यासितव्यः’ अर्थात् आत्मा ही जानने-सुनने, मनन-चिन्तन और ध्यान-धारणा के योग्य है। इस संसार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और जानने योग्य यदि कुछ है, तो वह सिर्फ आत्मा ही समझना चाहिए। अगर पूर्ण तृप्ति, पूर्ण शान्ति और पूर्णानन्द का अमृत रसपान करना हो तो इसी आत्मा को ही जानना चाहिए। आत्मज्ञान और आत्मोपलब्धि ही सभी शंकाओं का समाधान है, सभी आवश्यकताओं की परिपूर्ति है, सभी यात्राओं का अन्त है।          प्यारे मित्रो, हम आमन्त्रित करते हैं, आइए, रेत के महल में चैन की नींद सोने के सपने देखना छोड़कर जरा शाश्वत के सपने देखते हैं और उसी को पाने का प्रयत्न करते हैं। उसे जानने का फल बहुत ही मीठा और बहुत ही विराट है,  ऐसा महापुरुषों ने कहा है- ‘य एवं वेदाहं ब्रह्मा स्मीति स इदं सर्वं भवति।’ आत्मवेत्ता सर्वत्र हो जाता है, क्योंकि द्रष्टा का अनुभव ही विश्व का विस्तार है। ***

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