Friday, October 23, 2015

मृत्यु का घटना सत्य, मृत्यु असत्य

                                               मृत्यु का घटना सत्य, मृत्यु असत्य
           यह नितान्त उलझन भरी बात लगती है कि मृत्यु का घटना सत्य है तो मृत्यु कैसे असत्य है? पर यही हकीकत है। मृत्यु घटना के रूप में सत्य है। उसका घटना सत्य है, अर्थात् निश्चित है, परन्तु मृत्यु असत्य है। मृत्यु कोई सत्य नहीं है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। यद्यपि वह अवश्य घटती है। पूरी दुनिया देख रही है मृत्यु घटती है। दुनिया में आने वाले एक दिन अवश्य विदाई लेकर जाते हैं। शरीर के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, जिसे मृत्यु कहते हैं, और यह घटना हर पल, हर क्षण, कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटती ही रहती है, संसार में पैदा हुए प्राणी मरते हैं, मरते रहते हैं। परन्तु फिर भी वह असत्य है। उसका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे सत्य कहा जा सके।
           यह थोड़ा समझने योग्य है। मृत्यु सबकी होनी है, हो रही है, होगी, यह बात सत्य है। मगर मृत्यु नाम की कोई चीज है, यह असत्य है। मृत्यु कुछ नहीं है सिवाय भ्रम के। एक काली छाया का अस्तित्व तब तक है जब तक प्रकाश अभाव है। वैसे दार्शनिकों के अनुसार प्रकाश और अन्धकार दोनों अस्तित्ववान हैं। कुछ आचार्य यह भी कहते हैं कि अभाव का भी अस्तित्व है। क्योंकि जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता, वह किसी और चीज को जन्म नहीं दे सकता। वे कहते हैं अन्धकार भय को जन्म देता है और अभाव दुःख को। अनस्तित्ववान तत्व जनक योग्य नहीं होता, ऐसा दर्शनकार कहते हैं और इनका अस्तित्व की अवधारणा करते हैं।
           परन्तु मृत्यु कोई प्रकाश जैसा नहीं जो प्राण का संचार करे, धरा बक्ष पर उजास बिखरे और सुरम्य दृश्यों के दर्शन कराए। वह एक घटना है जो हर पैदा होने वाले के साथ घटने वाली है। मृत्यु से अनभिज्ञ संसारी इसे दुर्घटना कहते हैं। उनके लिए यह बहुत ही अप्रिय और अशुभ घटना है। परन्तु उननिषद्कार कहते हैं मृत्यु एक भ्रम है। आत्मज्ञानी कहते हैं मृत्यु एक माया है, एक भ्रम है, एक छलावा है, जिसमें अज्ञानी जन छले जाते हैं। ज्ञानी मृत्यु से नहीं डरते, बल्कि उसके पार खड़े रहते हैं। वे मरकर भी कहते हैं अब भी मैं हूँ। और इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। मरने के उपरान्त भी मृत व्यक्तियों के अस्तित्व की अनगिनत घटनाएँ सामने आई हैं। लोग उन्हें मृतात्माएँ कहते हैं, पर हैं तो कोई अस्तित्ववान सत्ताएँ ही। तो उपनिषद्कार ठीक ही कहते हैं आत्मा अजर अमर अविनाशी है। आत्मज्ञानी सिद्ध महापुरुषों ने उद्घोष किया है-अयमात्माब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्माऽस्मि, तत्वमसि आदि। इन महावाक्यों में आत्मा के अमरत्व का ही संकेत है जो सभी प्राणियों के अन्दर रहने वाला है। तो इस दृष्टि से मृत्यु क्या है-सिवाय भ्रम के?
           जो मृत्यु को नहीं जानते, उनके लिए मृत्यु अस्तित्ववान प्रतीत होती है। आत्मज्ञानियों के लिए वह कोरा असत्य है, बस एक घटना मात्र, जिससे वे सदा अप्रभावित रहते हैं। योगीजन समाधि अवस्था में ब्रह्म या आत्मा में स्थित रहते हैं, ऐसा अनुभवी महापुरुषों का कथन है। समाधि क्या है? कुछ अंश में मृत्यु और उसके पार का अनुभव। समाधि अवस्था में रहने वाला साधक शरीर भान से रहित होता है। उसे पता नहीं रहता कि उसका कोई शरीर भी है, यद्यपि वह अत्यन्त सूक्ष्म रूप से शरीर से जुड़ा रहता है। अगर सम्पूर्ण रूप से सम्बन्ध टूट जाये तो शरीर की मृत्यु अवश्यम्भावी है। परन्तु ऐसा नहीं होता। वह समाधि के बाद फिर से सहज स्वाभाविक रूप से शरीर में लौट आता या जाग जाता है और इसके पश्चात व्यवहार ऐसा होता है जैसे शरीर से पृथक कुछ हुआ ही नहीं। मृत्यु की स्थिति में आत्मा सदा के लिए शरीर का त्याग कर देती है, जबकि समाधि की अवस्था में बिना त्यागे शरीर से कुछ समय के लिए चेतना अलग हो गई होती है।
           असल में समाधि में आत्मा शरीर को नहीं छोड़ती, आत्मचेतना या बाह्य संज्ञान भर लुप्त हुआ होता है। महायोगी अरविन्द और कबीर जैसे सन्तों के लिए तो क्या निद्रा, क्या स्वप्र, क्या जाग्रत्, सभी अवस्थाओं में एक समान चेतना होती है जिसे उन्होंने पूर्णयोग या सहज समाधि कहा है। श्रीअरविन्द का पूर्णयोग जीवन में भी जैसा, मृत्यु में भी और उसके पश्चात भी वैसा ही रहने वाला है। यही सहज समाधि भी है। इस सहज समाधि या पूर्णयोग की स्थिति में कितने ही भारतीय महापुरुष आरूढ़ हैं, जिनके बारे में कहा जाता है वे आज भी वर्तमान हैं। सम्भवतः विश्व के अन्य हिस्सों के भी आत्मज्ञानी वर्तमान होंगे। हिमालय में ऐसे सिद्ध पुरुषों के होने के कई विवरण सुनने को मिलते हैं। उनके लिए मृत्यु कहाँ सत्य हुई ? बुद्ध, महावीर के लिए, रमण, रामकृष्ण के लिए मृत्यु कहा सत्य हुई ? वह बस एक घटना है, जो सबके साथ घटने वाली है। स्वामी युक्तेश्वर गिरिजी मृत्योपरान्त भी अपने शिष्य योगानन्द से मिले हैं, इस बात को ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी में योगानन्द जी ने स्वयं लिखा है। अगर यह सत्य है तो मृत्यु का क्या अस्तित्व हुआ ?
           असल में अज्ञान में ही मृत्यु है, आत्म-जागरण में मृत्यु का भी मृत्यु हो जाती है, जहाँ मनुष्य उद्धोष करता है- ‘अहं ब्रह्माऽस्मि’ मैं ब्रह्म हूँ। मेरा जन्म मृत्यु कुछ नहीं होता। नाहं जातो जन्म मृत्युः कुतो मे? मैं जन्म लेने वाला नहीं हूँ। फिर मेरा जन्म-मृत्यु कैसा ? जन्म-मृत्यु तब तक है जब अपने आत्मस्वरूप बुध नहीं हो जाता। जिस दिन मनुष्य अपने आपको, आत्मा को जान लेता है, महापुरुष कहते हैं वह मौत के पार चला जाता है, अमर हो जाता है। तो मृत्य कहाँ सत्य हुई ? सभी शास्त्रों का सार तथा ज्ञान की संजीवनी कही जाने वाली गीता में आत्मा के इसी अमरत्व पर आद्योप्रान्त चर्चाएँ हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-अर्जुन, तू अपने को नहीं जानता, पर मैं जानता हूँ-अपने को भी, तुमको भी और सबको भी। मैं द्रष्टा ही नहीं, स्रष्टा भी हूँ। गीता के इस कथनानुसार मृत्यु क्या है सिवाय असत्य के ?
           फिर मनुष्य मृत्यु से इतना भयभीत क्यों होता है? असल में वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता। भयभीत होता है अपनी अपूर्ण इच्छाओं से, उन महत्त्वाकांक्षाओं से जिनका पूरा न होने का भय उन्हें सताता रहता है कि मर गया तो क्या होगा ? मर गया तो क्या होगा? इतने सारे मरते रहते हैं क्या होता है ? हर पल प्राणी मरते रहते हैं, क्या होता है? हां, इच्छाएँ, कामनाएँ, वासनाएँ, ऐषणाएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ अपूर्ण रह जायेंगी, बस यही भय है। कुछ करना था जो नहीं कर पाये, कहीं उनके करने से पहले ही न मर जाऊँ, बस यही भय है। कुछ कर्त्तव्य भी-जिनको अवश्यमेव पूरा करना होता है और अभी तक उनमें से कुछ भी नहीं पूरा हुआ है, बस यही भय। यही मृत्यु भय है। जो अपने नहीं थे, उनसे बिछुड़ने का भय; दूसरे रूप में-जो पराये थे और हैं, उनको पाने और सदा अपना बनाये रखने की चाह, जो अत्यन्त जरूरी है और अब तक नहीं हो पाया है, बस यही मृत्यु भय है। मरने के बाद नरक मिलेगा, निचली योनियाँ मिलेंगी, पापों का भुगतान होगा, हिसाब लिया जायेगा, यह भय गौण है। असल में बहुत सी अपूर्ण इच्छाएँ जो हैं जिनकी पूरी होनी है और नहीं हुई हैं, और नहीं हुई तो क्या होगा? इस ‘क्या होगा’ को कोई नहीं जानता, इसलिए यह भय है कि कहीं मर न जाऊँ-अपूर्णकाम होकर।
           पूर्णकाम सत्यकाम कहते हैं मृत्यु कोई सत्य नहीं। मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा असत्य है। बस वह जीवन का अभाव भर है, सत्य नहीं। जीवन की अनुपस्थिति भर है, अस्तित्ववान नहीं। एक पड़ाव से दूसरी पड़ाव पर यात्रा भर है, एक दरवाजे की तरह, वह स्वयं कोई मकान नहीं जिस पर रहा-ठहरा जा सके। मृत्यु एक अज्ञान है, अनजानी घटना है, एक बेहोशी है। अगर होश बराबर बना रहे तो मृत्यु बस एक असत्य है-एक दुनियां से दूसरी दुनियां में जाने का दरवाजा भर।
           कहते हैं मृत्यु में असह्य पीड़ा होती है। यह असत्य नहीं। लम्बे समय तक जो चीजें परस्पर में छन्दी-बँधी गुँथी होती हैं, गाँठें मजबूत बनी होती हैं, वह चरमराकर टूटती-बिखरती हैं तो थोड़ी सी मुश्किलात जरूर होती है, बस यही दर्द है। सम्बन्ध टूटते हैं तो विक्षेप जरूर होता है। दोनों जुड़े हुए पक्षों में तनाव और टूटने की तीव्र खटास जरूर होती है, बस यही दर्द है। शब्द चाहे जो कह दो, मोह, लगाव, जुड़ाव, लिप्तता आदि, यह टूटने बिखरने की आवाज ही पीड़ा है। समझ बैठे थे सदा का अपना और निकल रहा है कोई न अपना, बस यही टीस है—मृत्यु-पीड़ा। चेतना जड़ के साथ एक लम्बा अर्सा जुड़ा रहा, गुँथा रहा और अचानक अलग हो रहा है-बिना चाहा पूरा हुए, बस यही है मृत्यु की पीड़ा। अगर चेतना जड़ से अलग होना सीख जाती है कि मैं जड़ नहीं चेतन हूँ, तो इस बोध के साथ ही मृत्यु की मृत्यु हो जाती है, ऐसा औपनिषद्कार कहते हैं।
           संसार में जितनी भी अब तक की आविष्कृत आध्यात्मिक साधना-विधाएँ हैं, सब के सब मौत के पार जाने रास्ते हैं। ये रास्ते उनके बताये हैं जिन्होंने उन रास्तों पर चलकर देखा कि ये कहाँ ले जाते हैं और फिर बाद में लोगों को बताया कि ये नदियाँ सागर में जाकर मिलती हैं और इनकी धाराओं में जो भी बहकर जाता है, वह भी समुद्र में जाकर मिल जाता है।
           युगनिर्माण योजना के संस्थापक, गायत्री के सिद्ध पुरुष, परम आत्मज्ञानी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी अपनी पुस्तक ‘मैं क्या हूँ’ में लिखते हैं, बल्कि लिखते भर नहीं, शपथ पूर्वक लिखते हैं- ‘यह मेरा देखा हुआ रास्ता है। जिनको चलना है, पीछे-पीछे चले आओ, आपको निश्चित ठिकाने पर पहुँचा दिया जाएगा।’ यह इतनी बड़ी बात है कि ऐसा कहने वाले आज के जमाने में शायद ही कोई मिले। लोग योग और धर्मशास्त्रों की तो लम्बी-चौड़ी बातें कर लेते हैं, परन्तु रामकृष्ण परमहंस की तरह कोई नहीं कहता कि ‘मैं ईश्वर को देखा हूँ। तूझे देखना हो तो बोल!’ इससे हजारों वर्षों पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था- ‘मैं ही ईश्वर हूँ, सबका अधिष्ठान हूँ। तू इधर-उधर मत भटक। मेरी शरण में आ जा-‘मामेकं शरणं व्रजः’ मैं तूझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा- ‘अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि।’ उसी बात को आज के भौतिकता के युग में भी युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी फिर से एक बार दावे के साथ दुहराकर कहते हैं- ‘मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ, यह मेरा देखा हुआ रास्ता है। जिनको चलना हो पीछे-पीछे आ जाओ। आपको निश्चित ठिकाने पर पहुँचा दिया जायेगा।’
           द्वापर के श्रीकृष्ण और इस युग के रामकृष्ण के अलावा किसी को ऐसा दावे के साथ कहते नहीं सुना गया। यह तीसरा दमदार दावेदार हैं जिन्होंने मृत्यु को जानने की इच्छा रखने वाले और मृत्यु के पार जाकर अपने आपको, आत्मा के अमरत्व को जानने के इच्छुकों को विश्वास दिलाया है कि तुम अमर हो और मैं जानता हूँ कि तुम अमर हो, क्योंकि मैं भी अमर हूँ और मैंने अपने अमरत्व को जान लिया है। उन्होंने मृत्यु के पार जाकर, आत्मा के अमरत्व को जानकर यह सिद्ध कर दिया कि मृत्यु असत्य है। उन्होंने ‘मैं क्या हूँ’ पुस्तक में मृत्यु के पार जाकर आत्मा के अस्तित्व को जानने की कई साधन विधियाँ भी बतायी हैं। जिज्ञासुओं को उनकी यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। यह छोटी सी पुस्तक वेदान्त का निचोड़ है। केवल इसी पुस्कत को पढ़ लेने मात्र से यह ज्ञात हो जाएगा कि मृत्यु का घटना भर सत्य है, मृत्यु नहीं। मृत्यु असत्य है। उससे न डरने की जरूरत है, न घबराने की। जरूरत है तो बस उसे जानने भर की और उससे पार जाने की।

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